Tuesday, 30 September 2014


कोशिशें जारी हैं तुम्हारे बिना जीने कीं, 



पर अभी भी रातों को आँखों में नींद नही है।
हर रात भीगते तकिये बता रहे हैं सच
कि दिल में हर पल बढता प्यार वही है।
छोड़ आये हैं तुमसे जुड़ी हर याद मीलों दूर,
पर हर आवाज़ में सुनाई देता नाम वही है।
सारे जतन कर लिए तुम्हे भुलाने के ,
सालों बाद भी हालात अभी बदले नहीं है।
जीना चाहते हैं बस अपने ही लिए
पर अपनापन जो पूरा करे वो साथ अब नही है।
शिकवा नही है कि तुम छोड़ कर गए
तुम्हे जाने कि इजाजत देने वाले जो हम ही हैं।
फिर भी क्यों नहीं जाते तुम मेरे दिलोदिमाग से
हर दम मन में उठता सवाल आज भी वही है।

पितृ पक्ष के विसर्जन की अब होने लगी तैयारियां हर तरफ है, 
उदासी की काली घटाओं के जाने का वक्त बस नज़दीक ही आ गया है
हो रहा हर ओर नवरात्री के आगमन का इंतज़ार है,
मंदिरों में भी हर ओर श्रृंगार की चल रही तैयारियां है ,
मिट जायेगा अँधेरा अब उजाले का हर किसी को इंतज़ार है , 
द्वार पर लगा कर बंदनवार माँ का करना अब स्वागत है ,
सुन्दर कलश को सजा फूलों से माँ का करना अब श्रंगार है ,
माँ की मूरत को चुनरी चढ़ा अब करना उनका पूर्ण श्रृंगार है ,
लाल गुड़हल के फूलों को माँ के क़दमों में चढ़ाना है ,
मेवा और मिष्ठान से माँ का भोग भी लगाना है
माँ के नौ रूपों का पूजन अब हमको करना है ,
उनके क़दमों से घर को करना है अब पावन ,
मुश्किलो को माँ के सहारे छोड़ अब रोज कीर्तन करना है ,
कन्या पूजन संग माँ को विदा भी करना है,
आ रही है नवरात्रि सब छोड़ माँ के आगमन का स्वागत करना है ॥


किसी के रोके से मैं ना रुका होता
प्यार से जो इक बार पुकारा होता
जंहा भी निछावर करत देते हम
काश! उनको भी प्यार गवारा होता
समझ आया सच्ची दोस्ती कोई कंहा निभाया 
मतलब के थे सब, मतलब मे साथ है निभाया
गिर गिर सम्हल के अब तो यह समझ पाया
फिर भी दुआ देता हूँ थोड़ी देर साथ तो निभाया
प्यार करते लोग पर फिर भी बिछड़ जाते
लाख चाहे जिन्दगी पर सब छोड़ चले जाते;
मौत ही जिन्दगी का आखिर पैगाम है बताते
इसलिये जिन्दा "दिल" ही दिलों मे रह जाते
ने ही हक मे लड़ना भी दुश्वार है कितना? 
हर आदमीं अपने मे ही लाचार है कितना?
अपनों को रौंद देता है खुद अपने पैर से...
इंसान का इंसान गुनाहगार है कितना?
मशरूफ है जो जश्न मे, अपनों को गम मे छोड़... 
वो शक्श उन के प्यार का हक़दार है कितना?
सोचा नहीं के दूँ ख़ुशी तौहफे मे गैर को...
अपने लिए खुशियों का तलबगार है कितना?
करता रहा ता उम्र जो इमां की दलाली...
खुद की नज़र मे ही वो शर्मशार है कितना?
करना सका जो अपने वतन से ही मुहब्बत... 
उस बुत का खुदा-ऐ-वफ़ा बेकार है कितना?