अने ही हक मे लड़ना भी दुश्वार है कितना?
हर आदमीं अपने मे ही लाचार है कितना?
अपनों को रौंद देता है खुद अपने पैर से...
इंसान का इंसान गुनाहगार है कितना?
मशरूफ है जो जश्न मे, अपनों को गम मे छोड़...
वो शक्श उन के प्यार का हक़दार है कितना?
सोचा नहीं के दूँ ख़ुशी तौहफे मे गैर को...
अपने लिए खुशियों का तलबगार है कितना?
करता रहा ता उम्र जो इमां की दलाली...
खुद की नज़र मे ही वो शर्मशार है कितना?
करना सका जो अपने वतन से ही मुहब्बत... उस बुत का खुदा-ऐ-वफ़ा बेकार है कितना?
हर आदमीं अपने मे ही लाचार है कितना?
अपनों को रौंद देता है खुद अपने पैर से...
इंसान का इंसान गुनाहगार है कितना?
मशरूफ है जो जश्न मे, अपनों को गम मे छोड़...
वो शक्श उन के प्यार का हक़दार है कितना?
सोचा नहीं के दूँ ख़ुशी तौहफे मे गैर को...
अपने लिए खुशियों का तलबगार है कितना?
करता रहा ता उम्र जो इमां की दलाली...
खुद की नज़र मे ही वो शर्मशार है कितना?
करना सका जो अपने वतन से ही मुहब्बत... उस बुत का खुदा-ऐ-वफ़ा बेकार है कितना?
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