पिछले कुछ समय में हमने इस समाज के दो चेहरे देखे | एक अत्यंत घिनोना, डरावना, अपराध, आतंक और दहशतगर्दी का | इसी समाज में छुपे वो चेहरे इतने घिनोने थे कि उन्हें इंसान मानना इस समाज के लिए सहज ना था | फिर चाहे वो गोवाहाटी की घटना हो या दामिनी की | चाहे वो आंतकवाद हो या नक्सलवाद | चाहे वो अपराध हो, दुष्कर्म हो या फिर व्यर्थ की बयानबाज़ी | इस तरह की घटनाएँ जब भी होती है, जहाँ कहीं होती है, इंसानियत के चीथड़े-चीथड़े कर देती है और मानवता को तार तार कर देती है |
ये लहू इंसानों का है या इसका रंग कुछ और है
आदमी के भेष में ये कौन आदमखोर है........ !
आदमी के भेष में ये कौन आदमखोर है........ !
ये चेहरा था क्रिया का | और एक चेहरा था प्रतिक्रिया का | इन सब घटनाओं के अंजाम बेहद दर्दनाक थे, मगर इसके दुसरे पहलू पर गौर किया जाये तो जिस तरह की क्रिया हुई उतनी जबरजस्त प्रतिक्रिया भी हुई | जिस तरह अपार जन सैलाब इन घटनाओं के विरोध में सड़कों पर उतरा वो एक बहुत बड़े परिवर्तन की तरफ इशारा कर गया | अपराधों को चुपचाप सहन करने वाले और डर के साये में जीने वाले समाज का हमने एक नया चेहरा देखा | एक बहुत बड़ा सवाल खड़ा हुआ "आखिर क्यूँ और आखिर कब तक?" अपने मुल्क को सरकारों के भरोसे छोड़ कर अपनी निजी जिंदगी में मस्त जनता की चेतना जाग्रत हुई और हमारे सब्र का बांध टूटा | नतीजे चाहे ज्यादा हमारे हक़ में ना रहे हो मगर इन विषयों पर चर्चा चौराहों तक पहुँची और हमने जवाब माँगना शुरू किया, ये अहम बात है |
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