Tuesday, 5 August 2014



माँ सिखलादे बचपन की भाषा में तुतलाकर बात करूँ
नन्हे क़दमों से दौडू आंगन में फिर हांफहांफ कर साँस भरूं
माँ आज सजा मुझको नेहलाकर,तू फिर लगा एक काली बिंदिया
हाय लगे न तेरे लाल को तू खोल वही काजल की डिबिया
माँ आंसू अब कम ही आते है सीख लिया है जीवन जीना
पर बचपन के आँसू मीठे थे रोने को था तेरा सीना
क्या अश्रू की बूंदे मठर नैनो में ही घुल जाएँगी 
या फिर इनको प्यार मिलेगा ये तेरा आँचल पाएंगी
माँकहते है मूर्ख लोग ये बेटा अब जवान हो गया
मुझे पता है मेरी पीड़ा मेने तो बचपन को खो दिया।।

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