Wednesday, 9 July 2014



यूँ तो बेवजह तारीफ़ मैं करता नही, 
पर आज ये शायर दिल मजबूर है, 
आज तक नही किया नशा जिसने, 
आज तेरे हुस्न के नशे में चूर है। 
चंचल सी,मद्धम सी ये धूप जैसे, 
फ़िसल रही हो तेरे खुले बाहों से, 
तेरा स्पर्श करने को आतुर हूँ, 
पर हाथों से नही,निगाहों से। 
दबी हुई हसरत है की मेरी नज़र, 
तेरा आँचल बन तुझसे लिपट जाये, 
या तेरे दीदार की प्यासी निगाहें,
तेरा अरमान बन तेरे दिल में सिमट जाये।
मेरे होंठ तेरे लबो पे सज जाये,
पर तेरी ही कविता के बोल बनके,
और समाये तेरी साँसे मेरी साँसो में,
फ़कत एक एहसास अनमोल बनके।
तेरे चेहरे की चमक ये जैसे,
मेरी रातों को रोशन करती है,
ख्वाबों के तहखाने में आने को,
जो तू यादों की सीढ़ियाँ उतरती है।
मुझमे तू है और तुझमे मैं हूँ,
इस हकीकत से अब मैं अंजान नही,
खूबसूरती की इस ज्योत के बिना,
इस सजल अस्तित्व की पूर्ण पहचान नही।

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